कब तक यूँही मुझे तरपायेगा ऐ 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा ऐ 'मन'...
मै तो ऐसे भी दर्द की मारी हूँ,,,
मुझे और चोट पहुचाकर ,
तुझे क्या मिल जाएगा ऐ 'मन'...
उजाले तो रूठे है मुझसे,,,
अब क्या अंधेरों को भी मेरा दुश्मन बनाएगा....
ख्याब तो टूटे है मुझसे,,,
अब क्या ग़लतफ़हमी भी दूर करवाएगा...
कब तक यूँही मुझे तरपायेगा ऐ 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा ऐ 'मन'...
मुस्कुराये हुए एक अरसा हुआ,,,
अब क्या आंसू भी गिरवायेगा...
मंजिल तो गुम हो चुके,,,
अब क्या रास्तों पे भी कांटे बिछ्वायेगा...
कब तक यूँही मुझे तरपायेगा ऐ 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा ऐ 'मन'...
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