Saturday, January 17, 2009

ऐ मन ...


कब तक यूँही मुझे तरपायेगा 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा 'मन'...

मै तो ऐसे भी दर्द की मारी हूँ,,,
मुझे और चोट पहुचाकर ,
तुझे क्या मिल जाएगा 'मन'...

उजाले तो रूठे है मुझसे,,,
अब क्या अंधेरों को भी मेरा दुश्मन बनाएगा....

ख्याब तो टूटे है मुझसे,,,
अब क्या ग़लतफ़हमी भी दूर करवाएगा...

कब तक यूँही मुझे तरपायेगा 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा 'मन'...

मुस्कुराये हुए एक अरसा हुआ,,,
अब क्या आंसू भी गिरवायेगा...

मंजिल तो गुम हो चुके,,,
अब क्या रास्तों पे भी कांटे बिछ्वायेगा...

कब तक यूँही मुझे तरपायेगा 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा 'मन'...

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