उलझनों को जब सुलझाती हूँ,,,
और ज्यादा उलझ जाती हूँ...
ख़ुद ही गलतियाँ दुहराती हूँ,,,
पर ओरो को समझाती हूँ...
परछाईयो को रोकती हूँ,,,
बेमाने रिश्तों को जोगती हूँ...
नींदों से शायद खफा-सी हूँ,,
ख़ुद से शायद जुदा-सी हूँ...
जिन्दगी का रंग समझती नही,,,
रास्तों पे संभलकर चलती नही...
बदलते वक्त को देखकर हैरान-सी हूँ,,,
अपनी लापरवाही से परेशान-सी हूँ...
और ज्यादा उलझ जाती हूँ...
ख़ुद ही गलतियाँ दुहराती हूँ,,,
पर ओरो को समझाती हूँ...
परछाईयो को रोकती हूँ,,,
बेमाने रिश्तों को जोगती हूँ...
नींदों से शायद खफा-सी हूँ,,
ख़ुद से शायद जुदा-सी हूँ...
जिन्दगी का रंग समझती नही,,,
रास्तों पे संभलकर चलती नही...
बदलते वक्त को देखकर हैरान-सी हूँ,,,
अपनी लापरवाही से परेशान-सी हूँ...
No comments:
Post a Comment