Wednesday, August 31, 2011

लड़की...

लड़की आँखें खोलती है
खुशी और चिंता के
मिले-जुले चेहरे तकती है
कुछ के आशाओं के
दीप बुझते पाती हैं,
लड़की फिर भी मुस्कुराती है

लड़की स्कुल जाती है
पढ़ते-लिखते कुछ बड़ी हो जाती है
माँ- बाप के  पढाने के
उदारता के बोझ से
थोड़ी दब-सी जाती है
लड़की फिर भी मुस्कुराती है

लड़की अपने लिए नही
अपनों को साबित करने के लिए
अपने पैरों पे खड़ी हो जाती है
पर इससे उसकी काबिलियत
कहाँ सिद्ध हो पाती है
लोग उसे सजाते हैं- धजाते हैं
उसके सच्चे-झूठे गुणों की
लिस्ट दिवार पे लटकाते हैं
उसे उठाते हैं- बिठाते हैं
ठोकते हैं -बजाते हैं
बहुत सोचने  के बाद
दुसरे किसी दुनिया मे ले जाते हैं
लड़की फिर भी मुस्कुराती है

अपनी नयी दुनिया को समझ पाती
इससे पहले ही लोग उसे
उसकी कई कमियाँ गिनवाते हैं
उसके हर एक आदत मे
हमेशा के लिए बदलाव चाहते हैं
लड़की इस दुनिया मे
लाये जाने का कर्ज चुकाती हैं
अपने सारे सपनो को भूलकर
औरों के सपने सजाने मे
जी-जान से लग जाती हैं
अपने खून से सींचकर
कुछ  नए पौधे लगाती हैं
उन पौधों को देखकर
लड़की फिर मुस्कुराती हैं

इन पौधों को  धुप, बारिश,
बिजली से बचाती हैं
बड़े जतन से इन्हें पेड़ बनाती हैं
पेड़ उसकी गोद मे अब
समां न पाते हैं
धीरे-धीरे न जाने कहाँ
किसी धुंध मे खो जाते हैं
दूर से कभी साफ़ मौसम मे
हरे भरे से जो दिख जाते हैं
लड़की देखकर फिर मुस्कुराती हैं

अब जब लड़की अकेली रह जाती हैं
इन अनजान रास्तों पे चलते-चलते
खुद को बहुत दूर कहीं पाती हैं
थकान इतनी की अब बस
धरती बन जाना चाहती हैं
अब न रोती है,न मुस्कुराती है
आँखें बंद करके वहीं
शुरु हुए बिना ख़त्म हो जाती है..

Thursday, August 11, 2011

जिन्दगी और मै..

कभी जिन्दगी समझ नही आती
कभी  खुद को समझ नही पाती
नही यें  शिकायत नही  हैं,
जिन्दगी से या फिर खुद से
यें तो कोशिश  हैं एक, समझने की
कागज के पन्नो पे ही शायद,
कोई सही तस्वीर बन जाए

जिन्दगी का रंग,
कहीं गम के बादलो-सा काला है
तो कहीं खिलखिलाती सरसों-सा पीला
थोडा मस्तमोला आसमानी भी है ये
पर ज्यादा हैरान परेशान लाल
जो शांत सफ़ेद  को उभरने नही देता
थोडा शोख हरा हैं,
तो थोडा शैतान संतरा भी
अरे देखते ही देखते,
कितने रंग उभर आये जिन्दगी के
मुझे तो लगता था,
बड़ी  बेरंग  हैं मेरी जिन्दगी
चलों आज एक ग़लतफहमी दूर हुई


अब खुद की तस्वीर की तरफ रुख करते है
मेरा रूप भटके पंछी-सा है
जो हर  पेड़  पे अपना घोसला ढूढ़ता हैं
भला घोसला ढूढने से  मिलेगा कैसे
पंछियों के  घोसले हमेशा एक नही होते
पुराना ढूढने  की बजाय
नया बनाने का वक्त हैं अब
पुराने को भूलकर,
नया सजाने का वक्त हैं अब 
भटकते-भटकते जान भी देदे 
पर पुराना लौट कर नहीं आएगा
पुराने की आश लेकर बैठा रहा तो
नया कुछ कर नही पायेगा
पुराने को जहन से निकाल दे 
तभी नए के लिए तिनके जुटा पायेगा
नया  बनाने की धुन में ही शायद
पुराने का सफ़र ख़त्म हो जायेगा
नए घोसले के अंदर ही शायद
फिर से उसे जिन्दगी का
पीला  रंग मिल जायेगा...

Tuesday, December 14, 2010

जिंदगी तू ऐसी क्यूँ हैं???

शुक्रिया जिन्दगी!!
एक और सबक सिखाने के लिए,
दिल पे गहरा, एक और घाव लगाने के लिए...
शिकवा करने का मतलब नही तुझसे,
तुने कभी सुनी हैं मेरी.. जो अब सुनेगी,,
कहेगी हमेशा की तरह की,
"जो होता हैं अच्छे के लिए होता  हैं"
जाने किसने तुझसे ये कहकर ,
तेरी मनमानियों को बढावा दिया हैं..
अगर कभी मिल जाये तो पुछुंगी ,
उन सभी हादसों के बारे मे ,
जिनसे आजतक न किसी  का  भला हुआ,,
 न ही आगे होने की कोई उम्मीद  हैं..

कभी सोचती हूँ, बहुत झगरू तुझसे,,
पर झगरू भी तो कैसे ??
जब भी कुछ बुरा-भला कहती हूँ ,
तू अपनी सूरत ऐसे मासूम-सा बना लेती हैं,
जैसे आगे से अब न  सताएगी..
और  झट से मैं तेरे भुलावे मे आकर,,
फिर से कोई नया ख्याब बुनने लग जाती हूँ..
तभी तेरे दिमाग मे हमेशा की तरह शैतानी छाती हैं..
दुष्ट, तू मेरे सपने को तोड़कर फिर से मुस्कुराती हैं..
तेरा ये सिलसिला, अब और मुझसे बर्दास्त न होगा..
सुधर जा...............मैं बोल रही हूँ......
नहीं तो....................नहीं तो......
नहीं तो.....क्या  कर ही सकती हूँ मैं ????
तू तो किसी के हिसाब से चलने से रही,,
हमें ही तेरे हिसाब से चलना होता हैं..
पर मैं भी तुझसे  हार नहीं मानूंगी,,
किसी दिन कोई सपना पूरा होने की आश लेकर,,
हर रोज़ एक नया ख्याब सजायुंगी....

Monday, March 29, 2010

चलों शादी कर लेती हूँ

चलों शादी कर लेती हूँ ,
थोडा मनोरंजन हो जाएगा ॥
चलों नौकरी कर लेती हूँ ,
थोडा समय कट जाएगा॥
पर शादी नहीं करनी थी,
इसलिए तो नौकरी पकड़ी थी॥
अब नौकरी से त्रस्त हुई तो ,
शादी का ख्याल आजमाने चली॥
जिन्दगी जैसे हवा हो गई हैं ,
कभी पूरब से बहती है, कभी पश्चिम से॥
न कोई स्थिरता है, न कोई स्वरुप ,
और ना ही कोई अस्तित्व ही ॥
किधर जाना है, कुछ पता नहीं ,
क्या पाना है, कुछ भाता भी तो नही॥
अन्दर एक निर्वात-सा हैं ,
बाहर सबकुछ धूमिल॥
बस चलते हैं, सब चलते हैं जो
किसी मुकाम पे पहुचना है सबको ,
पर पहुँचकर भी क्या हो जाएगा ,
मुकाम अंत मे एक राह ही बन जाएगा॥
लोग फिर भी राह तो तय कर ही लेते हैं ,
पर अपनी जिन्दगी तो ऐसे ही हैं॥
चलों शादी कर लेती हूँ..........................