Thursday, August 11, 2011

जिन्दगी और मै..

कभी जिन्दगी समझ नही आती
कभी  खुद को समझ नही पाती
नही यें  शिकायत नही  हैं,
जिन्दगी से या फिर खुद से
यें तो कोशिश  हैं एक, समझने की
कागज के पन्नो पे ही शायद,
कोई सही तस्वीर बन जाए

जिन्दगी का रंग,
कहीं गम के बादलो-सा काला है
तो कहीं खिलखिलाती सरसों-सा पीला
थोडा मस्तमोला आसमानी भी है ये
पर ज्यादा हैरान परेशान लाल
जो शांत सफ़ेद  को उभरने नही देता
थोडा शोख हरा हैं,
तो थोडा शैतान संतरा भी
अरे देखते ही देखते,
कितने रंग उभर आये जिन्दगी के
मुझे तो लगता था,
बड़ी  बेरंग  हैं मेरी जिन्दगी
चलों आज एक ग़लतफहमी दूर हुई


अब खुद की तस्वीर की तरफ रुख करते है
मेरा रूप भटके पंछी-सा है
जो हर  पेड़  पे अपना घोसला ढूढ़ता हैं
भला घोसला ढूढने से  मिलेगा कैसे
पंछियों के  घोसले हमेशा एक नही होते
पुराना ढूढने  की बजाय
नया बनाने का वक्त हैं अब
पुराने को भूलकर,
नया सजाने का वक्त हैं अब 
भटकते-भटकते जान भी देदे 
पर पुराना लौट कर नहीं आएगा
पुराने की आश लेकर बैठा रहा तो
नया कुछ कर नही पायेगा
पुराने को जहन से निकाल दे 
तभी नए के लिए तिनके जुटा पायेगा
नया  बनाने की धुन में ही शायद
पुराने का सफ़र ख़त्म हो जायेगा
नए घोसले के अंदर ही शायद
फिर से उसे जिन्दगी का
पीला  रंग मिल जायेगा...

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