Thursday, January 22, 2009

जिन्दगी...

कभी लगता है ,जिन्दगी भँवर है,
जिसमे हम अनचाहे खिचे चले जा रहे हैं...
कभी लगता है, ये कँवर है,
जिसे रखना पाप है, इसलिए ढोए चले जा रहे हैं...
जिन्दगी के फूल कभी-कभी खुशबू भी फैलाते हैं,
पर ये फूल जल्दी ही मुरझा जाते हैं,
और सड़कर फ़िर लंबे समय तक अपनी बदबू छोड़ जाते है

जिन्दगी देनेवाले का काम भी बड़ा अजीब होता है,
इतने लोगों के लिए अलग-अलग राह बनाना,
कुछ लोगों को मिलाना,
और कुछ को मिलाकर अलग करवाना
कुछ पर अपने कृपा के मोंती बरसाना,
और कुछ की शिकायतें अनसुनी कर जाना

कुछ लोग भी अजीब होते हैं,
रिश्तें मर जाते हैं फ़िर भी उन्हें ढ़ोते हैं,
जब एहसास होता है तो बस रोतें हैं
समझदार लोंग ऐसे समय कहाँ खोते हैं,
पर कुछ लोंग इतने समझदार नही होते हैं,
ख़ुद गलतियाँ करते है और शिकायत ओरों से होते हैं,
जिन्दा तो रहते है पर जिन्दगी का मतलब खोते हैं

Tuesday, January 20, 2009

सफ़ेद और काला...

सफ़ेद से ख्याबो को रचती रही...
काले की तौहीन करती रही...
एक दिन, सफ़ेद दिन की रौशनी मे कहीं खो गया...

अँधेरी रातों मे काला अपनी चादर ओढाकर मुझे सो गया
...
फ़िर भी मन मे सफ़ेद के लिए प्यार कम हुआ...

काला
जानता था, पर इस बात का कभी उसे गम हुआ
...
सफ़ेद के लिए मै उडान भरती रही...

और काले को ख़ुद से दूर करने की कोशिश करती रही...

पर जब भी थक कर चुड़ हो जाती थी...

काले को ही अपने सबसे करीब पाती थी...

काले का ही आसरा मिलता रहा...

ये सिलसिला बहुत रोजो तक चलता रहा...

सफ़ेद की हसीं की याद तडपाती रही...

काले की झोली मे अपने आँसू गिराती रही...

सफ़ेद से लगाव था मेरा...

पर वो बेगाना मेरा साथ छोड़ गया...

काला
भाता था एक रत्ती...
और वही आज मेरा हमसफ़र हो गया...

Sunday, January 18, 2009

वो बचपन...

वो विक्रम-बैताल के लिए, स्कुल से दौड़कर घर आना,,
और
किताबो के बीच नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव छुपाना

वो दोपहर में माँ के आँख लगते ही बाहर खेलने भाग जाना,,
और
कहीं से कुत्ता का बच्चा पकड़कर घर ले आना और डांट खाना..

वो माँ के पीछे छिपकर भी जानी दुश्मन देखते जाना,,
और बिजली जाने पर, Mr.India देखने शर्मा अंकल के घर चले जाना

वो दुर्गा पूजा में नये कपडो के लिए एक महीने पहले से दुकान जाना,,
और गर्मी छुट्टी में नानीघर जाते वक्त ट्रेन की खिड़की से चिपक जाना

वो मम्मी का जबरदस्ती पकड़कर बालों में तेल लगाना,,
और पापा का ऑफिस से आते वक्त ढेर सारी चीजे लाना

वो लालटेन के सामने पढने की बजाय, लीड का बैलून बनाना,,
और
स्कुल में मार खाए इस वास्ते, हथेली पर पुटूस के पत्ते लगाना

वो सांपो और भूतों की कहानी सुन, तीन-बार गायत्री मन्त्र दोहराना,,
वो भाई से लड़ना और बहन को फुसलाना,वो स्कुल जाने के दस बहाने बनाना

और भी कितना कुछ ,जो दिल के बहुत ही करीब है ,,
वो बचपन कितना हसीन है,वो बचपन कितना खुसनसीब है॥

Saturday, January 17, 2009

पापी रात...

रात बदनसीब-सी दबे पाव चली आई है,,
अपने साथ पापो की गठरी उठा लायी है

जब सारा जग सो रहा है गहरी नींद मे,,
क्यों मुझको ही अपना दुखरा सुनाने आई है

जाकर इन यादों को कही दफना क्यों नही आती,,
अपने साथ मुझे भी निजाद क्यों नही दिलाती

जिनकी यादों को ये नासमझ ढोए जा रही है,,
उसने तो बस बेवफाई ही वफ़ा से निभाई है

जिस वक्त मौका आया हाथ बढ़ाने का,,
उसने जोर से एक और ठोकर लगाये है॥

अब दीवानी को कैसे समझायुं,ऐसे तू जी नही पायेगी,,
जितना इनको संजोयेगी,उतना ख़ुद को चोट पहुचायेगी

दिल के घाव को तो अब तक भरने दिया,,
अब क्या रात जगाकर, आँखों से भी खून उतरवाएगी


ऐसा कोई...

वो जो सपनो को सजा दे...
वो जो ओरों को भुला दे...

वो
जो जज्बातों को जुबान दे...

वो जो होठों को मुस्कान दे...

वो
जो सफर को सुहाना बना दे...

वो जो बिन किए वादें निभा दे...

वो
जो मेरा होना लाजमी है बता दे...

वो जो खुदा और किस्मत पे भरोशा दिला दे...

वो
जो मेरे दिल के गुलशन को खिला दे...

वो जो सपनो को हकीक़त से मिला दे...

ऐ मन ...


कब तक यूँही मुझे तरपायेगा 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा 'मन'...

मै तो ऐसे भी दर्द की मारी हूँ,,,
मुझे और चोट पहुचाकर ,
तुझे क्या मिल जाएगा 'मन'...

उजाले तो रूठे है मुझसे,,,
अब क्या अंधेरों को भी मेरा दुश्मन बनाएगा....

ख्याब तो टूटे है मुझसे,,,
अब क्या ग़लतफ़हमी भी दूर करवाएगा...

कब तक यूँही मुझे तरपायेगा 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा 'मन'...

मुस्कुराये हुए एक अरसा हुआ,,,
अब क्या आंसू भी गिरवायेगा...

मंजिल तो गुम हो चुके,,,
अब क्या रास्तों पे भी कांटे बिछ्वायेगा...

कब तक यूँही मुझे तरपायेगा 'मन',,,
मुझे परेशां करके तू क्या पायेगा 'मन'...

ख़ुद से परेशां...

उलझनों को जब सुलझाती हूँ,,,
और ज्यादा उलझ जाती हूँ...

ख़ुद ही गलतियाँ दुहराती हूँ,,,
पर ओरो को समझाती हूँ...

परछाईयो को रोकती हूँ,,,
बेमाने रिश्तों को जोगती हूँ...

नींदों से शायद खफा-सी हूँ,,
ख़ुद से शायद जुदा-सी हूँ...

जिन्दगी का रंग समझती नही,,,
रास्तों पे संभलकर चलती नही...

बदलते वक्त को देखकर हैरान-सी
हूँ,,,
अपनी लापरवाही से परेशान-सी हूँ...