
आज दिल ने चाहा सबकुछ भूलकर, सोचु अपने को। अपने बाहर को नही बल्कि अपने अन्दर को, जो कभी स्थिर पानी से भी ज्यादा शांत रहता है,,जब मेरे बाहर हर तरफ़ शोर-ही-शोर होता है । पर जिसमे कभी-कभी समुन्द्र से भी ज्यादा भयानक तूफान उठते है,,जिसे महसूस करती हूँ जब रहती हूँ तन्हा। आज सोचा उससे पुछ ही लु, की तुम चाहते क्या हो ?? मै दुबारा पूछती हूँ ,आख़िर तुम चाहते क्या हो??? पर फ़िर से मेरी आवाज जैसे पर्वतो से टकराकर वापस मुझ तक ही लौट आती है। ऐसा लगता है मानो , मेरा अन्दर मेरा सवाल मुझसे ही पुछता हो । उसका मौन मुझसे कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कहता हो। वह मुझे समझाता है या मै उसे ? कुछ समझ नही आता । पर कही से आवाज आती है की , मै हर रिश्ते को बांधना चाहती हूँ, अनंत काल के लिए । और यही मेरी परेशानी की एकमात्र वजह है। क्यूंकि सबकुछ हमेशा के लिए नही होता। और जब तक होता है, तब भी डरी रहती हूँ खोने के डर से । और जब खो जाता है , तो बैठी रहती हूँ पाने की आश मे । ये जानते हुए की जो चला गया है, उसका आना अब सम्भव नही। ये एहसास ऐसा होता है ,जैसे अपने किसी प्रियजन की मौत के बाद हम उसके आने की आश कर रहे हो। रिश्ते भी तो एक बार मर जाते है तो , उनका उसी रूप मे वापस आना सम्भव नही होता। और जो रिश्ते आज आपके साथ है वो हमेशा ऐसे ही रहेंगे ये भी जरुरी नही । ये मेरा अन्दर जानता है पर मानता नही । और जबतक मानेगा नही ,तब तक मै यु ही परेशान रहूंगी,,अन्दर-ही -अन्दर...
yaar tanhai me tum itna accha likhti hoki bas.....accha hai aise hi kuch akelepan me likhte raho..............it is really nice...
ReplyDeletethnx dear 4 ur patience to read me everytime... :)
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